Monday 20 May 2019

12 मई, मेरे पिताजी पूज्यनीय सिध्देश्वर प्रसाद सिंह जी की पुण्यतिथि

12 मई, आज मेरे पिताजी पूजनीय सिद्धेश्वर प्रसाद सिंह जी की चौथी पुण्यतिथि है। पिताजी एक कृषक परिवार से निकलकर अपनी मेहनत और लगन से एम.ए. और पीएच.डी. की और भूगोल विषय के व्याख्याता (प्रोफेसर) बने। 
पिताजी ने ज्यादातर पढ़ाई भागलपुर विश्वविद्यालय अंतर्गत टीएनबी कॉलेज से की। दसवीं और बारहवीं तक वो बेहद ही साधारण छात्र थे, बी.ए. की परीक्षा देने के बाद वो गांव आ गए, शायद अब वो आगे नहीं पढ़ना चाहते थे, किसानी और पहलवानी करना चाहते थे, उन्हें उन दिनों पहलवानी का शौक था पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, एक दिन वो अपने बड़े भाई को रेलवे स्टेशन (धनौरी) छोड़ने गए, ट्रेन से एक व्यक्ति ने चिल्लाते हुए कहा, ये 'धोती-कुर्ता' तुम यहाँ क्या कर रहे हो? टॉपर कहींके ! पिताजी को लगा वो शायद इनका मजाक उड़ा रहा है, शायद वो फेल हो गए होंगे। लोग विश्वविद्यालय में धोती-कुर्ता पहनने के कारण 'धोती-कुर्ता' कहकर मजाक करते थे। ट्रेन के जाने के बाद जब वे स्टेशन पर जिज्ञासावश किसी से अखबार लेकर देखा तो सचमुच उस वर्ष बी.ए. भूगोल (ऑनर्स) में सिर्फ वही अकेले फर्स्ट क्लास पास हुए थे, यानी वे सचमुच उस वर्ष के विश्वविद्यालय टॉपर हो गए थे। 
यहीं से उनकी जिंदगी बदल गई, उनके सपने बदल गए। उनको आसानी से एम.ए. में दाखिला मिल गया स्कॉलरशिप भी मिल गई। वे एम.ए. भूगोल में भी भागलपुर विश्वविद्यालय के टॉपर रहे और उन्हें आसानी से यू.जी.सी. फ़ेलोशिप भी मिल गई और वहीं से पीएच.डी. में पंजीकरण करा लिया। पीएच.डी. करने के दौरान वे एक बार बीपीएससी और यूपीएससी की परीक्षा भी दिए और बिना किसी विशेष तैयारी के पी.टी. आसानी से निकाल भी लिये पर कुछ पारिवारिक उलझनों के कारण वे मेंस अच्छी तैयारी से नहीं दे पाये, वो कहते थे किसी ने उस समय उन्हें अच्छी तरह से गाइड नहीं किया, पीएच.डी. की थीसिस जल्दी जमा करने का दबाव और गाइड प्रोफ़ेसर डॉ. अनिल कुमार सिंह जी का बार-बार ये कहना की आईएस, आईपीएस, बीडियो और सीओ बनकर क्या करोगे, देश को अच्छे शिक्षक की जरूरत है; आईएएस, आइपीएस, बीडीओ और सीओ तो प्रोफेसर बनाते हैं आदि। वो इन परीक्षाओं के सारे एटेम्पट भी नहीं दे सके जिसका उनको हमेशा मलाल था।
पढ़ाई पूरी करने के बाद रांची विश्वविद्यालय स्थित आदर्श कॉलेज राजधनवार में  वर्ष 1984-85 में पहली व्याख्याता की नौकरी ज्वाइन किया। बाद में यह कॉलेज विनोबा भावे विश्वविद्यालय बनने के बाद उसके अन्तर्गत आ गया। वे कुछ वर्षों के लिए आर.एस.मोर कॉलेज, गोविंदपुर (धनबाद); बी.एस.के. कॉलेज, मैथन और विनोबा भावे विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग के विश्वविद्यालय कैंपस, हजारीबाग में भी अपनी सेवा दी।
पिताजी का एक संस्मरण जो अक्सर उनके करीबी मित्र बताते थे। एम.ए. करने के दौरान टी.एन.बी. कॉलेज के भूगोल विभाग का एक ग्रुप स्टूडेंट टूर कश्मीर स्थित गुलमर्ग गया था, ग्रुप टूर के इंचार्ज एवं कॉलेज के विभाग अध्यक्ष ने गुलमर्ग पहुँचने पर अचानक छात्रों को बताया कि उनका बटुआ चोरी हो गया है; अत: अब टूर को आधे में ही खत्म करना होगा या छात्र चाहें तो चंदा इकठ्ठा करके अपने खर्चे से आगे का टूर जारी रख सकते हैं। पर पिताजी ने यह कह कर अपने टूर इंचार्ज का विरोध किया कि चूंकि पैसा डिपार्टमेंट से वो स्वयं निकले हैं और अपनी कस्टडि में ही रखें हैं तो पैसे की पूरी ज़िम्मेदारी उनकी व्यक्तिगत है, इसके लिए छात्र क्यों चंदा इकठ्ठा करें और सबकी माली हालत ऐसी नहीं की वे दो-तीन दिन और रहने खाने का खर्च वहन कर सकें। इस बात से टी.एन.बी. कॉलेज के विभाग अध्यक्ष एवं ग्रुप टूर इंचार्ज काफ़ी नाराज़ हो गए। इन्होंने गुस्से में यहाँ तक कह दिया कि बी.ए. में टॉप क्या कर गए अपने आप को तीसमारखां समझने लगे हो, देखता हूँ एम.ए. में कैसे पास करते हो। इस घटना के बाद से वो काफ़ी तनाव में रहने लगे। एम.ए. फ़ाइनल के दौरान जब प्रैक्टिकल परीक्षा का समय आया तो वो काफ़ी डर हुए थे, प्रैक्टिकल परीक्षा में एक इंटरनल और एक एक्सटर्नल एक्जामिनर होता है, इंटरनल एक्जामिनर विभाग अध्यक्ष खुद थे और एक्सटर्नल एक्जामिनर बन के आए थे उस समय के जाने-माने जीओग्राफर पटना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एस. एम. करिमी जी। शायद विभाग अध्यक्ष ने सचमुच इनके बारे में कुछ निगेटिव कहा था तो उन्होंने इनके परिचय के बाद इनसे पहला प्रश्न पूछा कि आपने 2 वर्ष में भूगोल में क्या-क्या पढ़ा है? पिताजी ने बहुत ही मासूमियत से कहा सर हमारे कॉलेज की लाइब्रेरी में भूगोल में जितनी भी किताबें हैं उसे एक बार जरुर पढ़ा है। एक बार प्रोफेसर एस. एम. करिमी जी को भी लगा शायद ये सचमुच बहुत फेक रहा है फिर उन्होंने लाइब्रेरी में उपलब्ध किताबों के लेखक सहित इनसे नाम पूछा? और पिताजी ने लगभग 25-30 किताबों के नाम और लेखक के नाम बताए फिर करिमी जी ने भूगोल के एक थ्योरी पर लाइब्रेरी में उपलब्ध विभिन्न लेखकों की राय पूछी और पिताजी 5-6 लेखकों के नाम सहित उनके विचार तुलनात्मक बताया। प्रोफेसर एस. एम. करिमी जी इनसे काफ़ी प्रभावित हुये और कहा जाओ टॉपर। ऐसे रिज़ल्ट आने तक वे काफी डरे रहे पर वास्तव में ये फिर से एम.ए. में विश्वविद्यालय टॉपर थे।
पिताजी बी.ए. तक की सारी परीक्षा हिंदी माध्यम से दिए पर एम.ए. और पीएच डी अंग्रेजी माध्यम से की। उस दौरान वो ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी पूरी तरह रट गए थे। मैने अपनी 10वीं के बाद की पूरी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से की और बी.ए. इंग्लिस होनर्स से, मैं अपने जीवन में उनके पास होते हुए कभी डिक्शनरी नहीं खोला, वो चलते-फिरते डिक्शनरी थे। वो हमेशा कहते थे खाली समय में डिक्शनरी पढ़ा करो। जो थोड़ी-बहुत मुझे अंग्रेजी आती है वो उनकी मेहनत का ही परिणाम है। वो 10वीं के परीक्षा के बाद रामायण, महाभारत, संस्कृति के चार अध्याय, भारत एक खोज, विवेकानंद साहित्य संचयन जैसे मुझे कई किताबें दीं और कहा इन सब को एक बार पढ़ जाओ। मैंने खाली समय में इन सब किताबों को एक बार पूरी तरह पढ़ा।
उनकी शुरुवात में वामपंथी साहित्य में गहरी रुची थी, मेरे घर पर कार्ल मार्क्स की ‘दास कैपिटल’, मैक्सिम गोर्की के ज्यादातर नावेल, लेनिन सहित कई और लेखकों की ढेरों किताबें थीं। इसके अलावा प्रेमचंद्र, शरत चंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर की और हिंदी भाषा के कई बड़े साहित्यकार की रचनाएँ घर पर है, जिसे पिताजी ने कभी न कभी पूरा पढा था। बातचीत में, विचार में कहीं से भी उनपर वामपंथ का थोड़ा भी असर नहीं था, सामान्यतया वो वामपंथियों से चिढ़ते थे, तर्क और बहस करते थे।

वो भले ही प्रोफ़ेसर भूगोल के थे पर लगभग हर विषय में उनकी पकड़ जबरदस्त अच्छी थी, ख़ासकर इतिहास, राजनीतिक शास्त्र, सोशल साइंस, हिंदी भाषा, संस्कृत, अंग्रेजी आदि। ज्यादातर उनके शिक्षक और प्रोफ़ेसर मित्र उनसे किसी विषय पर चर्चा करने से बचते थे और बहस हो जाने पर जल्द हार मान लेते थे। आये दिन ऐसी बहस की चर्चा सुनने में आती थी। वो अपनी लगन के और अपने फ़र्ज के बड़े पक्के थे, कोई आये या ना आये, वो अपना क्लास एक स्टूडेंट को भी पढ़ाकर पूरा कर लेते थे। कई बार सिलेबस पूरा नहीं होने पर छात्रों को घर पर बुलाकर फ्री ट्यूशन देकर अपना सिलेबस पूरा करते थे। परिस्थिति कुछ भी हो, वो हर सेशन में अपना सिलेबस पूरा कर के ही मानते थे। वो प्राइवेट ट्यूशन भी करते थे पर अक्सर जो विषय उनको क्लास में बढ़ाना होता था, उसमें ट्यूशन नहीं देते थे, कहते थे, क्लास नोट ही ट्यूशन नोट है, अलग से नहीं, सरकार उसके लिए सैलेरी देती है। इसी कारण कुछ प्रोफेसर उनसे चिढ़ते भी थे, क्योंकि क्लास में उनसे पढ़ते थे और ट्यूशन हमारे पिताजी से। उनसे ट्यूशन लेने वाले कई छात्र विश्वविद्यालय टॉपर रहे राज्य सरकार में ऑफिसर बने और आई.ए.एस. बने
उनको गावँ से भी बहुत लगाव था, वो हर महीने लगभग एक बार गावँ (अमरपुर) चले जाते थे। कौन से खेत में क्या फसल लगी है, खेत में पानी का क्या हाल है, बोआई हुआ की नहीं, खाद डला की नहीं, कटाई हुआ की नहीं, गाय को बच्चा कब होगा, बाछा हुआ है या बाछी, गाय कितना दूध दे रही है, वे गाँव की सब जानकारी रखते थे। जब भी गांव गए तो जाते ही घर से सटे बाड़ी में सब्जी लगाना, पटाना, कुदाल चलाना, जब गाय रहा तो गाय का चारा काटना, गाय को चारा देना यह सब उनके अति परिश्रमी होने के, जमीन से जुड़े होने के प्रमाण थे। वो यह सब करने के लिए मुझे भी प्रेरित करते थे, सिखाते थे, पर वो उत्साह जो उनमें था इन कामों के प्रति वो मेरे भीतर कभी नहीं जग सका।
नौकरी ज्वाइन करने के बाद वर्ष 1986 में पहली बार पिताजी मुझे अपने साथ लेकर झारखंड स्थित राजधनवार आये। लगभग 2 वर्षों तक मैं और पिताजी एक साथ बैचलर की तरह ही रहे। उन दिनों मां गांव (अमरपुर) में ही रहती थी। पिताजी ही खाना बनाते थे, मेरे कपड़े धोते थे, स्कूल भेजते थे, मुझे पढ़ाते थे। उस समय मैं छठी कक्षा में था। मैंने ज्यादातर चीजें अपने पिताजी से ही सीखी, जैसे रोटी बनाना, कपड़े धोना, पढ़ना-लिखना सब। वो खाना बनाते समय, खाना खाते समय, सोते समय, यहाँ तक की ट्रेन में यात्रा के दौरान भी पढाई से जुडी बात करते थे जैसे ट्रांसलेशन, समानार्थक और विपरीतार्थक शब्द, शब्दों के सपेल्लिंग्स आदि। लगभग दो वर्ष बाद जब जॉब में थोड़ा स्थायित्व आ गया तब उन्होंने माँ, बहन (पूनम) और एक चचेरे भाई (चंद्र भूषण) को लेकर राजधनवार आ गए। दो वर्ष बाद जब मैं 10वीं पास कर गया, तो वो मेरी पढ़ाई को ध्यान में रखकर पूरे परिवार सहित हजारीबाग शिफ्ट हो गए और मेरा नामांकन संत कोलम्बा कॉलेज में करवा दिया। हज़ारीबाग में कुछ वर्ष मेरे साथ मेरा फुफेरा भाई नीलेश भी रहा। बाद में दो चचेरे भाई (भूषण, सुदर्शन), एक चचेरी बहन (पुनिता) सबको हज़ारीबाग ले आये थे, सभी के अच्छी पढ़ाई को ध्यान में रख कर।
वो खुद साधारण जिंदगी जिये, हमेशा कम खर्च में काम चलाये, पर मुझे दिल्ली लॉ करने के लिए भेजा। बहन पूनम को भी हज़ारीबाग में एम. ए. के लिए भेजा। भतीजे-भतीजी को भी उच्च शिक्षा देकर ही चैन लिए, किसी को BCA, किसी को बी.टेक. किसी को एम.एस. सी. और बी.एड.। हमारे परिवार में हमारी ज्यादातर बहनों ने एम.ए. और बी.एड. किया हुआ है। पिताजी शिक्षा को लेकर बहुत ही महत्वाकांक्षी थे, पूरे परिवार को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करना, सपोर्ट करना और आर्थिक संबल देना। 

*देहावसान*
वर्ष 2015, 10 मई की बात है, उन दिनों पिताजी बी.एस.के कॉलेज, मैथन, झारखंड में व्याख्याता थे, वो कॉलेज के भूगोल विभाग के ग्रुप स्टूडेंट टूर कर लौट ही थे कि शाम अचानक उनके सीने में बेचैनी भरा दर्द उठा, परिवार के लोग धनबाद में ही किसी निजी अस्पताल ले गए। वहाँ डॉक्टर ने प्राथमिक चिकित्सा देकर किसी बड़े हॉस्पिटल में ले जाने के लिए कहा और बताया ये सीवियर हार्ट अटैक हो सकता है। रात्री ही परिवार के लोग उन्हें एम्बुलेंस से कोलकाता स्थित बी.एम.बिरला हॉस्पिटल ले गए। मैं उस दिन दिल्ली में था, यह समाचार सुन अविलंब दिल्ली से फ्लाइट लेकर रात्री में कोलकाता निकल गया। सुबह पव फटे 5:00-5:30 बजे होंगे, मैं उनके सामने था, अभी उनका प्राथमिक चेकअप चल रहा था, मुझे देखते ही बोले, अरे इतना जल्दी आ गये, अब तुम आ गए, मुझे कुछ नहीं होगा। उनके आंखों में एक विश्वास और एक चमक थी, वो बहुत खुश थे मुझे देखकर। सब कुछ नार्मल लग रहा था, 11 मई सब कुछ नार्मल रहा। डॉक्टर ने कहा, एंजियोग्राफी करना पड़ेगा, मैं थोड़ा डर रहा था, मैंने कहा ये सब दिल्ली चल के करवा लीजिये अब आप नार्मल हैं, कुछ दिन आराम कीजिये; पर वो कॉन्फिडेंट थे बोले नहीं ये अच्छा हॉस्पिटल है, यहीं ऑपेरशन करवा लेते हैं। 12 मई लगभग दोपहर 12 बजे, जब डॉक्टर उन्हें एंजियोग्राफी के लिए ऑपेरशन थिएटर ले जा रहे थे, तो शायद वो थोड़ा डर गए, कुछ लोगों को उन्होंने उधार दिए थे, बोले, उनसे पैसे ले लेना। मैंने झिरकते हुए बोला, ये सब आप मुझे क्यों बता रहे हैं, आप बिल्कुल ही ठीक हैं, सबकुछ नार्मल है, आप खुद उनसे ले लीजियेगा, मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी आपको। आप जाइये इत्मिनान से। जब डॉक्टर आपरेशन कर रहे थे, तभी अचानक 12 बजकर 40 मिनट (12 मई 2015) पर भूकंप का झटका महसूस हुआ, हॉस्पिटल में भगदड़ सी मंच गई। भूकंप के लगभग 40 मिनट बाद जब स्थित सामान्य हो गयी तो डॉक्टर ने बताया अब आपके पिताजी नहीं रहे। पिताजी चिरनिद्रा में सो गये थे, सदा-सदा के लिए।
मैं पिताजी को हमेशा अपने में महसूस करता हूँ और कई बार अनायास लगता है, मेरे कई बातों में, तर्क में, व्यवहार में, आचरण में, मैं उनका अनुकरण मात्र हूँ, सच है - "आत्मा वै पुत्रो जायते"।
पिताजी को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि।

3 comments:

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